मैं-- मालिन मन-बगिया की
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दशकों से
अनेकों परिभाषाओं में कढ़ी
स्व-अस्तित्व को संघर्षरत ,
इस नर-प्रधान समाज से
मैं अब तंग आ गयी
किसी ने चेताया –
न छेड़ उसे वह अबला है
किसी ने बखाना –
अलौकिक देन वह रमणा है
किन्ही ने कहा –
नारी ! तू श्रृष्टि, तू प्रकृति, तू भद्रा है
किन्ही ने ललकारा –
उठ मात्रिके ! तू साक्षात नव-दुर्गा है
आखिर मानव के द्वय स्वरूपों से
एक को परिभाषाओं की
क्यों आवश्यकता पड़ी?
जीती-जागती ‘मैं’
निष्प्राण शब्दों में क्यूँ गयी मढ़ी?
– प्रियांका त्रिपाठी
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