Menu
blogid : 14090 postid : 822578

संघर्ष हर श्वास पर

मैं-- मालिन मन-बगिया की
मैं-- मालिन मन-बगिया की
  • 29 Posts
  • 13 Comments

एक दिन ‘लौ’ गया सूरज के पास
बोला मामा मैं हूँ बड़ा उदास ,
हम जग का परोपकार ही करते हैं
तो भी सदैव अन्धकार से घिरे रहते हैं ,
मैं मानता हूँ तिमिर को अपना हमदम
पर बना रहता है वह मेरा दुश्मन ,
दोस्ती ना वैर है मेरा कुछ उससे
तो भी न जाने कौन सा बदला लेता है मुझसे ?
लोककल्याण को हम रहते हैं सदैव तत्पर
निःस्वार्थ, कर देते अपना सबकुछ न्योछावर !
जग के लिए हम अत्यंत ज़रूरी
विकल्प नहीं है हमारा कोई ,
तो भी करना होता है संघर्ष हर श्वास पर
साबित करना पड़ता है खुद को कदम-कदम पर ,
क्या न्यायसंगत योग्यता का इतना इम्तहान ?
परोपकार करने का मिलता क्या यही परिणाम ??

सोच में डूबा सूरज अब बोल उठा बड़े प्यार से
समझाया नन्हे भान्जे को ज़रा पास बिठा के–
तपस्वी जब ठंढ, धूप, वर्षा सहता है
तभी तो दुर्लभ ज्ञान प्राप्त करता है !
कुरूप-काला कोयला है जलता जब
रक्तवर्णित कितना सुन्दर लगता है तब !
वृक्ष नहीं फल रखते कभी स्वयं के लिए ,
परोपकार को ही शिव ने हलाहल पिए !
गुलाब के पास ही तो उगते हैं कांटे
रोशनी की ओर उड़ती हैं कीट-पतंगें,
घिसकर ही देव-प्रतिमा पर लगता चन्दन
सोना तपकर ही बनता है कुंदन ,
निरर्थक नहीं जाता कभी त्याग-परोपकार
इनसे ही बनता है सुन्दर संसार !
महापुरुष लाख परीक्षाओं से भी नहीं घबराते हैं
पार कर सभी को, अंततः क्षितिज पर पहुँच जगमगाते हैं ||

— प्रियंका त्रिपाठी ‘दीक्षा’

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply